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August 31, 2023
अनिल. वनवानी/उदयपुर। देश में जहां पग-पग पर भाषा बदल जाती है तो कई अनोखी परंपराएं भी मिल जाती हैं। मेवाड़ की भी ऐसी परंपरा है जो डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा समय से लगातार चली आ रही है। इस परंपरा में आदिवासी समाज सवा महीने या 40 दिन तक भगवान शिव की आराधना करता है। इनका मकसद सिर्फ एक ही होता है, गांव में खुशहाली।
यह परंपरा है गवरी, यह शब्द भी मां गौरी से आया है। आदिवासियों का यह लोक नृत्य राखी पर्व के दूसरे दिन से शुरू हो जाता है जो लगातार 40 दिन तक चलता रहता है। इसकी कहानी कुछ ना कुछ संदेश देती है। इस परंपरा का निर्वहन करने के लिए गांव का हर व्यक्ति जुड़ता है। राखी के दूसरे दिन से ही वह अपने घर को त्याग देता है।
नशे का त्याग, न ही नहाते हैं
इन लोगों के पैर में ना चप्पल होती है और ना ही 40 दिन तक नहाते हैं। यहां तक कि हरी सब्जियां, मांस या किसी मादक पदार्थ का सेवन तक नहीं किया जाता है और सिर्फ एक समय भोजन करते हैं। इनके भोजन का समय भी निर्धारित होता है। एक दिन में एक जगह सुबह 10 से 5 बजे तक गवरी नृत्य होता है। इसके बाद वह जगह छोड़ते हुए दूसरी जगह या दूसरे गांव में जाकर अगले दिन वह नृत्य इसी समय शुरू करते हैं।
गवरी में 8 या 9 अलग-अलग कहानियां पूरे दिनभर में नृत्य और गीतों के माध्यम बताते हैं। मुख्य रूप से इसमें भगवान शिव और भस्मासुर की कहानी होती है। इसके अलावा गांव में आने वाले डाकू लुटेरों, पेड़ काटने वाले व्यक्तियों के खिलाफ लड़ाई लड़ने की सहित अन्य कहानियां होती हैं। गवरी में भाग लेने वाले सभी व्यक्ति अलग-अलग किरदार को निभाते हैं और वे उसी वेशभूषा में रहते हैं, जो पौराणिक कथाओं के माध्यम से बताई गई है। वे अपने चेहरे पर मेकअप करते हैं, रंग बिरंगे कपड़े पहनते हैं, हाथों-पैरों में घुंघरू होते हैं और तलवार भी लहराई जाती है। डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी परंपरा अभी भी चल रही है।
गवरी उत्सव की रस्में
गवरी महोत्सव में ऐसा माना जाता है कि इसमें भाग लेने वालों को सख्त नियमों से गुजरना पड़ता है, क्योंकि उन्हें मांसाहारी चीज खाने से रोका जाता है और रात में भी खाने से परहेज किया जाता है। इस त्योहार में पुरुष अपने चेहरे पर शृंगार करते हैं और विभिन्न कहानियों और प्राचीन गाथाओं पर कई अभिनय करते हैं जो उत्सव और त्योहार के लिए प्रासंगिक हैं। लोगों को भगवान के प्रति प्रेम, भक्ति और विश्वास का संदेश देने का प्रयास करते हैं और यह मानवता के महत्वपूर्ण संदेशों में से एक हो सकता है, जो गवरी के माध्यम से फैलाते हैं। उत्सव की अनोखी बात है कि इसके सभी पात्र पुरुष होते हैं, महिलाओं को इसमें हिस्सा नहीं दिया जाता।
वर्तमान समय में गवरी
भील इतने अमीर नहीं हैं क्योंकि यह समुदाय खेती और छोटे-मोटे कामों पर निर्भर है, इसलिए गवरी को इतने प्रचार के साथ मनाना वास्तव में इन लोगों के लिए अप्रभावी हो रहा है और अंतत: समुदाय से दूर होता जा रहा है, क्योंकि बहुत कम लोग बचे हैं जो खर्च कर सकते हैं। वेशभूषा और शृंगार पर हजारों रुपए खर्च होते हैं और यही कारण है कि यह त्योहार वास्तव में बहुत ही धूमिल होता जा रहा है।
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