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June 10, 2017
रिपोर्ट-चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने कहा है कि वन बेल्ट वन रोड’ परियोजना में शामिल होने के लिए भारत के लिए अब भी दरवाजा खुला हुआ है। पिछले महीने ही इसकी बैठक चीन की राजधानी बीजिंग में हुई थी। ग्लोबल टाइम्स का कहना है कि वन बेल्ट वन रोड परियोजना के करीब भारत एकमात्र ऐसा देश है जो इस बैठक में नहीं आया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चीन सरकार ने आमंत्रित किया था, लेकिन वे नहीं आए। अख़बार ने लिखा है- संप्रभु देश के तौर पर भारत को निर्णय लेने का हक़ है कि वह बैठक में शामिल हो या नहीं। लेकिन भारत की नामौजूदगी से इस फोरम की बैठक की सफलता पर कोई असर नहीं पड़ता। कुछ चीनी पर्यवेक्षक इस बात को लेकर जरूर आशंकित हैं कि वन बेल्ट वन रोड परियोजना के कारण चीन और भारत के संबंध ख़राब होंगे।
भारत सरकार के पदाधिकारियों और वहां के मीडिया घरानों ने वन बेल्ट वन रोड को लेकर अपनी सामरिक चिंता दिखाई है। लेकिन ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि जब भारत में ऐसी बातें चल रही थीं तब अमेरिका और जापान के प्रतिनिधिमंडल बीजिंग में थे। ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक 2011 में अमेरिका की तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने अफ़ग़ानिस्तान को ध्यान में रखकर न्यू सिल्क रोड की बात की थी। इरादा अफ़ग़ानिस्तान के ज़रिए मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में लिंक कायम करने का था। इसके ज़रिए ऊर्जा समाधान और अफ़ग़ानिस्तान मुद्दे को प्रभावी तरीके से काबू में करने की बात थी। इंडो-पैसिफिक कॉरिडोर योजना का प्रस्ताव 2014 में रखा गया था। यह मेकोंग-गंगा कोऑपरेशन की तरह है जिसके बारे में भारत ने 2001 में विचार किया था। चीन के सरकारी अखबार ने कहा है कि इन योजनाओं को लेकर कोई अड़ंगा नहीं लगाया था। अगर इसमें कोई गुंजाइश है तो पूरा किया जाना चाहिए।
चीन का दावा है कि तथाकथित फ्रीडम कॉरिडोर और एशिया-अफ़्रीका ग्रोथ कॉरिडोर का वन बेल्ट वन रोड से कोई टकराव नहीं है। पिछले तीन सालों में इस परियोजना को दक्षिण एशिया, हिंद महासागर और अफ़्रीकी प्रायद्वीप के बीच आर्थिक तरक्की को प्रोत्साहित करने का काम किया गया है। अख़बार लिखता है कि भारत और जापान चीन से होड़ करना चाहते हैं, लेकिन चीन का लक्ष्य व्यापार को सुगम बनाना है। भारत व्यापक आर्थिक सहयोग के ज़रिए एक उदार शक्ति बना है। अफ़्रीकी देशों और भारतीय नागरिकों के बीच संपर्क से चीन को सीखने की ज़रूरत है।
हकीकत यह है कि चीन और भारत कई साझा परियोजनाएं बहुत धीमी चाल से चल रही हैं। भारत की राजनीतिक चिंताओं के कारण कई प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं। भारत की चिंताएं वाजिब हैं। लेकिन चीन उन पर ध्यान देता नहीं लगता। अब ये भारतीय विदेश नीति के लिए बड़ी चुनौती है कि वह चीन की मंशाओं का मुकाबला कैसे करे। ग्लोबल टाइम्स का ताजा लेख मिसाल है कि अपनी आक्रामक नीतियों के साथ चीन बीच-बीच में नरमी दिखाने की चाल भी चलता रहता है। इसी का हिस्सा ग्लोबल टाइम्स का यह कहना है कि वन बेल्ट वन रोड का दरवाज़ा अब भी भारत के लिए खुला है।
आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल ने ये साफ कहा कि ब्याज दर करने वाली मौद्रिक नीति समिति के सदस्यों ने नीति पर निर्णय के पहले बैठक करने के वित्त मंत्रालय के अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। अगर वो बैठक होती तो वित्त मंत्रालय कमेटी पर ब्याज दरें घटाने के लिए दबाव डालता। मगर अब ये साफ है कि एमपीसी के सदस्यों ने इस स्थिति को साधिकार जताया कि मौद्रिक नीति तय करना रिजर्व बैंक का विशेषाधिकार है, जिसमें सरकार का दखल वे नहीं चाहते। आरबीआई एक स्वायत्त संस्था है। अतीत में उसकी हैसियत को सरकारें स्वीकार करके चलती थीं। रघुराम राजन के दौर में तो रिजर्व बैंक ने अपने दायरे को और सुस्पष्टता दी। लेकिन नोटबंदी के समय उलटी धारणाएं बनीं। इसीलिए उर्जित पटेल और उनके सहयोगियों का ताजा रुख खासा अहम माना गया है। इसके पहले खबरें आई थीं कि सरकार पटेल से खुश नहीं है। उसमें धारणा बन रही है कि पटेल अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने के लिए पर्याप्त मदद नहीं कर रहे हैं। सरकार की ये शिकायत भी है कि नॉन परफार्मिंग एसेट्स की बढ़ती समस्या से निपटने में आरबीआई की गति धीमी है। लेकिन गौरतलब है कि अब ब्याज दरें अकेले गवर्नर तय नहीं करते। एमपीसी में सरकार के दो प्रतिनिधि भी हैं। उन सबने एकमत से ब्याज दरें यथावत रखने का फैसला किया, तो इसके लिए अवश्य ही उनके पास ठोस आधार होगा। बेहतर होगा कि सरकार इस निर्णय और आरबीआई की स्वायत्तता का सम्मान करे।
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