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March 23, 2021
खिड़की पर्दे चुप बैठे थे,
घर के कमरे चुप बैठे थे।
पत्थर चीख़ रहे थे मुझमें,
काँच के टुकड़े चुप बैठे थे।
झुलस रहा था जिस्म धूप में,
जिस्म के साए चुप बैठे थे।
फटे हुए ज़ख़्मों को ढक कर,
साबुत कपड़े चुप बैठे थे।
आँखे सबकी बोल रही थी,
लेकिन चेहरे चुप बैठे थे।
चीख़ रहे थे कई उजाले,
कई अँधेरे चुप बैठे थे।
मेरी नींद को तोड़ने वाले,
तेरे सपने चुप बैठे थे।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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