Post Views 81
March 1, 2021
दूर तक ख़ामोशियों के संग बहा जाये कभी,
बैठ कर तन्हाई में खुद को सुना जाए कभी.
देर तक रोते हुए अक्सर मुझे आया ख़याल ,
आईनों के सामने खुद पर हंसा जाए कभी.
जिस्म के पिंजरे का पंछी सोचता रहता है ये,
आसमाँ में पंख फैला कर उड़ा जाए कभी.
उम्र भर के इस सफ़र में बारहा चाहा तो था, बारहा=बार बार
मंज़िले मक़सूद मेरे पास आ जाये कभी. मंज़िले मक़सूद=आखरी मंज़िल
मुझेमें ग़ालिब की तरह शायर कोई कहने लगा,
अनकहा जो रह गया वो भी कहा जाए कभी.
खुद की खुशबू में सिमट कर उम्र सारी काट ली,
कुछ दिनों तो दूर खुद से भी रहा जाए कभी.
हंस पडी साँसें उन्हें जब रोक कर मैंने कहा,
ज़िन्दगी को आख़री इक ख़त लिखा जाए कभी.
(सुरेन्द्र चतुर्वेदी)
© Copyright Horizonhind 2025. All rights reserved