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December 18, 2020
कुछ भी नहीं है मेरे बाहर,यही बहुत है।
मैं हूँ अपने जिस्म के अंदर ,यही बहुत है।
जिसके पास मुझे जाना है सामने है वो,
नज़र में है उसका हर मंज़र,यही बहुत है।
झरने,बादल, दरिया,और तालाब सभी हैं,
मेरी प्यास की ज़द में समन्दर,यही बहुत है।
मुझे बुलंदी आसमान की नहीं चाहिए,
है महफ़ूज़ तेरे दर पर सर,यही बहुत है।
जब भी दी आवाज़ तुझे मैंने शिद्दत से,
देखा तूने तभी पलटकर,यही बहुत है।
सुल्तानों से दूरी मैंने रखी बनाकर,
तेरा हाथ है मेरे सर पर,यही बहुत है।
हूँ फ़क़ीर की झोली जिसमें छिपे हैं अम्बर,
है ज़मीन पे लेकिन बिस्तर ,यही बहुत है।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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