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December 10, 2020
मोर जब चलने लगा पँजों से पहचाना गया,
उस तरह ही मैं मेरे शेरों से पहचाना गया।
जिस्म की ख़ुशबू फ़क़त कपड़े बदलती रह गई,
मैं हमेशा अपने ही ज़ख़्मों से पहचाना गया।
आख़री दम तक रहा आँखों में तेरी ही मगर,
ग़म तेरा फिर भी मेरे अश्क़ों से पहचाना गया।
नाज़ ख़ुद पर कर रही थी शह्र की वो रौशनी
शह्र जो गिरते हुए अंधों से पहचाना गया
यूँ तो थी मीनार भी ऊँची बहुत घर की मगर ,
दूर से ही घर मेरा पेड़ों से पहचाना गया।
सिर्फ़ मंज़िल पर पहुंचना था नहीं काफ़ी मेरा,
थी ग़नीमत ये कि मैं रस्तों से पहचाना गया।
ज़र्फ़ उसका रह गया ज़िन्दा रहा ख़ामोश जो,
हां मगर लफ़्फ़ाज़ तो बातों से पहचाना गया।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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