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January 9, 2018
हर सितम हमने सहां लेकिन ख़ता कुछ भी नहीं,
दर्द से बुत हो गये लेकिन कहा कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी ने काग़ज़ों का हाशिया समझा हमें,
और शायद इसलिए हमपे लिखा कुछ भी नहीं.
उसको बुत में भी खुदा आने लगा यारों नज़र ,
और जाने क्यूँ मुझे उसमे दिखा कुछ भी नहीं.
इस तरह से अपना रिश्ता हमनें मिट्टी पे लिखा,
लाख तूफां उस पे गुज़रे पर मिटा कुछ भी नहीं.
रात भर जिसको मैं अपनी दास्ताँ कहता रहा,
वो सुबह कहने लगा उसने सुना कुछ भी नहीं.
उसने इक-इक करके सारे दर्द मुझको दे दिए ,
और देने के लिए उसपे बचा कुछ भी नहीं..
रौशनी के दर पे मैंने कि अदा हरदम नमाज़ ,
इन नमाज़ों से मुझे लेकिन मिला कुछ भी नहीं.
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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