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June 10, 2017
रिपोर्ट-भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर उर्जित पटेल के वचन और कर्म दोनों से संकेत ग्रहण किया गया है कि आरबीआई फिर से अपनी स्वायत्तता जताने की कोशिश में है। नोटबंदी के बाद जैसी खबरें मीडिया में छायी रहीं, उससे आरबीआई की साख बुरी तरह प्रभावित हुई। धारणा बनी कि ये संस्था एनडीए सरकार के फैसलों पर मुहर लगाने की औपचारिकता भर अदा कर रही है। लेकिन बुधवार को घोषित द्विमासिक मौद्रिक नीति इस राय को तोड़ती नजर आती है। मीडिया रिपोर्टों से साफ हो चुका था कि सरकार ब्याज दर में कटौती चाहती है। जिस समय सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के मामले में भारत फिर चीन से पिछड़ गया है, सरकार की समझ थी कि सस्ते ऋण से विकास दर को बल प्रदान किया जा सकता है। लेकिन आरबीआई ने उसकी ये इच्छा पूरी नहीं की। मगर बात यहीं तक नहीं है।
आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल ने ये साफ कहा कि ब्याज दर करने वाली मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के सदस्यों ने नीति पर निर्णय के पहले बैठक करने के वित्त मंत्रालय के अनुरोध को स्वीकार नहीं किया। ये माना गया कि अगर वो बैठक होती तो वित्त मंत्रालय कमेटी पर ब्याज दरें घटाने के लिए दबाव डालता। मगर अब ये साफ है कि एमपीसी के सदस्यों ने इस स्थिति को साधिकार जताया कि मौद्रिक नीति तय करना रिजर्व बैंक का विशेषाधिकार है, जिसमें सरकार का दखल वे नहीं चाहते। आरबीआई एक स्वायत्त संस्था है। अतीत में उसकी हैसियत को सरकारें स्वीकार करके चलती थीं। रघुराम राजन के दौर में तो रिजर्व बैंक ने अपने दायरे को और सुस्पष्टता दी। लेकिन नोटबंदी के समय उलटी धारणाएं बनीं। इसीलिए उर्जित पटेल और उनके सहयोगियों का ताजा रुख खासा अहम माना गया है। इसके पहले खबरें आई थीं कि सरकार पटेल से खुश नहीं है। उसमें धारणा बन रही है कि पटेल अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने के लिए पर्याप्त मदद नहीं कर रहे हैं। सरकार की ये शिकायत भी है कि नॉन परफार्मिंग एसेट्स की बढ़ती समस्या से निपटने में आरबीआई की गति धीमी है। लेकिन गौरतलब है कि अब ब्याज दरें अकेले गवर्नर तय नहीं करते। एमपीसी में सरकार के दो प्रतिनिधि भी हैं। उन सबने एकमत से ब्याज दरें यथावत रखने का फैसला किया, तो इसके लिए अवश्य ही उनके पास ठोस आधार होगा। बेहतर होगा कि सरकार इस निर्णय और आरबीआई की स्वायत्तता का सम्मान करे।
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