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June 5, 2017
नई दिल्ली- 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने के साथ ही भारत के राजनीतिक नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश की जनता को दो जून का भोजन उपल्बध कराना था। शुरुआत में भारत की पंचवर्षीय योजनओं का मुख्य उद्देश्य भी जमीनी स्तर पर भारत को मजबूत बनाना ही था। अंतरिक्ष विज्ञान के विकास को लेकर सरकार करीब दो दशक तक शिथिल रही। लेकिन सातवें दशक के मध्य में भारत ने ये साबित कर दिया कि भले ही जमीन पर उसे तमाम चुनौतियों का सामना कर पड़ रहा है। अब वो अंतरिक्ष में छलांग लगाने को तैयार है। पिछले पचास साल के दौर में भारत ने मंगलयान, चंद्रयान, मौसम आधारित उपग्रहों को प्रक्षेपित कर दिया है कि अब वो अमेरिका और रूस को टक्कर देने को तैयार है। इसरो एक बार फिर कहानी लिखने को तैयार है, अगर पांच जून को जीएसएलवी मार्क तीन का प्रक्षेपण कामयाब होता है। तो भारत भी मानव को अंतरिक्ष में भेजने में सफल हो सकेगा।जीएसएलवी मार्क -3 की खासियत- जीएसएलवी मार्क-3 की ऊंचाई 43.43 मीटर है- जीएसएलवी का व्यास 4 मीटर है। - इसका वजन दो सौ हाथियों के बराबर है। - अनुमानित लागत 300 करोड़ रुपये- 8 टन भार ले जाने में सक्षमजीएसएलवी मार्क-3 का निर्माणइसरो ने जीएसएलवी मार्क-3 का निर्माण 2000 के दशक में शुरु किया। पहले इसका प्रक्षेपण 2009-10 में प्रस्तावित था। लेकिन कई वजहों से ये टलता रहा। इसमें तीन रॉकेट स्टेज हैं।18 दिसंबर 2014 को क्रायोजेनिक इंजन के साथ इसका पहला सब ऑर्बिटल परीक्षण हुआ। 2010 में 24 जनवरी, पांच मार्च और आठ मार्च को इसके कई तकनीकी परीक्षण हुए। 25 जनवरी 2017 को क्रायोजेनिक इंजम स्टेज का 50 सेकेंड का परीक्षण हुआ। क्रायोजेनिक इंजन का सबसे लंबा परीक्षण 640 सेकेंड तक 18 फरवरी को पूरा हुआ। इन परीक्षणों में इस रॉकेट की क्षमताओं को परखा गया। अभी इसरो के पास दो प्रक्षेपण रॉकेट हैं। इनमें पोलर सेटेलाइट लॉन्च वेहिकल सबसे भरोसेमंद है। इससे अंतरिक्ष में 1.5 टन वजनी उपग्रह भेजे जा सकते हैं। दूसरा जीएसएलनी मार्क 21 है इसकी मदद से 2 टन वजनी उपग्रह भेजे जा सकके हैं। लेकिन इसे भरोसेमंद नहीं माना जाता है। इसरो अभी 4 टन भारी उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजने के लिए फ्रांस के एरियन-5 रॉकेट की मदद लेता जीएसएलवी की मदद से सेटेलाइट को पृथ्वी से 36000 किलोमीटर ऊपर की कक्षा में स्थापित किया जाता है। यह कक्षा भूमध्य रेखा और विषुवत रेखा के सीध में होती है। जीएसएलवी यह काम तीन चरण में करता है जिसमे अंतिम चरण में सबसे अधिक बल की आवश्यकता होती है, क्योंकि यान को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव वाले क्षेत्र से बाहर निकलने के लिए जिस निर्धारित वेग को प्राप्त करना होता है वो बहुत अधिक होता है जिसकी वजह से अधिक से अधिक ताकत की जरूरत होती है।
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