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October 11, 2021
ज़िन्दा हूँ मैं हिलता डुलता रहता हूँ,
दीवारों से बातें करता रहता हूँ।
हिंदी की मैं रूह से ज़िन्दा हूँ लेकिन,
उर्दू से भी मिलता जुलता रहता हूँ।
लहू के हर कतरे से मेरा रिश्ता है,
जिस्म के अंदर चलता फिरता रहता हूँ।
ख़ुद पर इतरा ले सूरज चाहे जितना,
अपनी आग में मैं भी जलता रहता हूँ।
बाहर से पुख़्ता दिखने की ख़ातिर ही,
अंदर से मैं हर पल ढहता रहता हूँ।
मिल जाएं बादल तो लगता हूँ उड़ने,
यूँ दरिया के साथ में बहता रहता हूँ।
इश्क़ की ख़ुश्बू से वाकिफ़ हूँ तभी तो मैं,
रूहानी ग़ज़लें ही कहता रहता हूँ।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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