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June 1, 2017
रिपोर्ट-भाग्य तो फोटो से झलकेगा ही। यदि आडवाणी, डा जोशी एंड पार्टी को 46 डिग्री गर्मी में लखनऊ की अदालत में धक्का खाना है तो वजह भाग्य है, करनिया है।! भला उसकी नरेंद्र मोदी के शाईनिग भाग्य से क्यों तुलना की जाए? पर आज सुबह भाईलोग जर्मनी में नरेंद्र मोदी के वैश्विक लुत्फ, और प्रिंयका चोपडा के साथ उनके फोटो को इस मंशा से शेयर करते मिले कि देखों और तुलना करो! क्यों करे? अपना पूछना है कि कहां राज भोज और कहा गंगू तेली! आडवाणी, डा जोशी या भाजपा-संघ के आरोपी न केवल आज अप्रासंगिक है बल्कि पूरी हिंदुत्ववादी राजनीति में भी इसलिए य़े सब बेमतलब है क्योंकि बैल और भैस, श्मशान और कब्रिस्तान पर्याप्त है हिंदू वोट पकाने के लिए। आडवाणी और डा जोशी ने तुष्टीकरण, सेडो सेकुलरिज्म जैसी बौद्धिकता झाड़ कर जो रथ यात्राएं, एकता यात्राएं की, अयोध्या की मसजिद-मंदिर के मसले पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जो बड़ी-बड़ी बाते हांकी वे सब भैंस की पूछ पर लटकी हुई है। जो हिंदूवादी हिंदू है उसे भैंस चाहिए न कि बौद्धिकता। वक्त ने, वैश्विक घटनाओं ने बाहुबली पैदा कर तो भैंसे अपने आप दौड़ने लगेगी। और बाहुबली की वह राजनीति हो जाएगी जिसमें बुद्वी और तर्क वाले दुश्मन नंबर एक है। तब आडवाणी और डा जोशी भला क्यों न जेल जाए? लालकृष्ण आडवाणी और डा मुरलीमनोहर जोशी का यह हश्र होना ही था। अभी तो आगे देखते जाए। य़ों अभी भी जो है वह कल्पनातीत है। आखिर कोई तुक है जो मोदी राज में सरकारी तोता सीबीआई सुप्रीम कोर्ट में जा कर बहस करे कि ये लोग पापी है। इन्होने साजिश की, इसके सबूत है इसलिए मुकद्दमा चले। फिर सुप्रीम कोर्ट भी दो टूक अंदाज में वापिस मुकद्दमा चलाने का निश्चित आदेश देते हुए कहे कि चार्ज फ्रेम करों। लगातार सुनवाई करके दो साल में फैसला दो।
ये जब निचली अदालत, हाईकोर्ट में बरी हो गए, अपर्याप्त साक्ष्य से मुकद्दमे खत्म हुए तो सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई का जाना और देश की सर्वोच्च अदालत का भी बिना इन्हे सुने फैसला सुना देना क्या कल्पनातीत बात नहीं है? वरिष्ठ एडवोकेट वेणूगोपाल ने लेख लिख हैरानी जताई थी कि जिन पर फैसला होना है उन्हे सुने बिना चार्ज फ्रेम कर मुकदमें का आदेश भला कैसे? कईयों ने मंगलवार के दिन यह खुशफहमी पाली हुई थी कि आडवाणी, डा जोशी जब डिस्चार्ज होने की अपील कर रहे है तो संभव है अदालत उनकी अपील मान ले। मतलब चार्ज लायक कुछ नहीं तो बात मान ले।
पर आरोप तय होना तो सुप्रीम कोर्ट में ही तय हो गया था। इसलिए आरोप तय हुए और अगले सप्ताह से लगातार सुनवाई शुरू होगी। पता नहीं इसमें कितने बयान, साक्ष्य दर्ज होंगे। 250-300 लोगों की गवाही हो सकती है तो एजेंसियों की तरफ से भी साक्ष्य पेश होंगे। यों आडवाणी, डा जोशी को रोजमर्रा की उपस्थिति की जरूरत से छुट्टी मिली है। मगर जब इनके खिलाफ कोई गवाही देगा तो हिसाब से इनकी शिनाख्त और जिरह के लिए इन्हे बार-बार अदालत में हाजिर तो होना होगा।
मुझे पीवी नरसिंहराव के मुकद्दमेबाजी के आखिरी दिन याद हो आ रहे है। पर तब लखूभाई पाठक का मुकद्दमा दिल्ली में चला था। आडवाणी का लखनऊ में चलेगा। यूपी में यह मुकद्दमा चले और मुस्लिम आबादी यदि आडवाणी- डा जोशी सहित तमाम आरोपियों पर फोकस बना इन्हे गुनहगार माने और मोदी को कानून प्रिय और चुपचाप मंदिर निर्माण की तैयारी चले तो राजनीति कैसे खिलेगी, इसकी कल्पना कर सकते है!
सो कोई हर्ज नहीं यह मानने में कि एक वक्त था जब आडवाणी, डा जोशी हिंदू राजनीति के रथयात्री थे और अब प्यादे है। इनका बुढ़ापा अगले दो साल बतौर प्यादे के कटेगा। शायद मन ही मन सोचने लगे हो कि उन्होने क्यों अपने को उस हिंदू राजनीति में कुरबान किया जिसमें न कौम अहसान मानती है और न संगठन और सहयात्री। कल सुबह लखनऊ के अखबारों में यह खबर अंदर ऐसे दबी हुई थी जैसे आज वहा कुछ होना ही नहीं है। सोशल मीडिया के हिंदू लंगूर आडवाणी और डा जोशी और बाकि हिंदू आरोपियों को ले कर लंगूरी करते नही दिखे। कोई इनके बचाव में खडा नहीं दिखा। कानून अपनी जगह काम करेगा, यह कह कर सबने किनारा काट लिया है। सोचे, साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित, असीमानंद के लिए सरकार की एनआईए जैसी संस्था यह स्टेंट ढ़ंके की चोट ले सकती है कि कोई साक्ष्य बनता नहीं और सोशल मीडिया में उनके लिए कुछ शाबासी भी दिखलाई दे गई मगर किसी टीवी मीडिया एंकर ने प्राइम टाइम पर यह बहस नहीं की कि आडवाणी तो उन्मादित भीड को रोक रहे थे। वे तो फला मनोदशा में थे। ध्यान रहे ऐसी बहस कर्नल पुरोहित को ले कर घंटो हुई है।
सोशल मीडिया के हिंदू लंगूर कहेगे कि मैं आडवाणी का पैरौकार हूं। पर मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि आजाद भारत के इतिहास में आडवाणी, डा जोशी सहित 12 लोगों के साथ जो हुआ है वह सियासी विश्वासघात की पराकाष्ठा है। इस पर आप जितना सोचेगे मन ही मन हिंदू राजनीति के इस विश्वासघाती स्वरूप पर ग्लानि होगी! यह भी जाहिर होता है कि राजनीति में हिंदू की किस्मत तभी है जब सत्ता की राजनीति हो। आडवाणी, डा जोशी या वाजपेयी आजाद भारत में हिंदू राजनीति के अपेक्षाकृत भद्र चेहरे थे। कुछ सहज हिंदू स्वभाव, संघ के भाईचारे और सत्ता निरपेक्षता में इन्होने राजनैतिक जीवन जीया। आडवाणी ने गलती की जो उन्होने उस सब का ध्यान नहीं रखा जो राजनीति की अनिवार्यताएं है। मतलब आडवाणी ने क्यों वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने दिया? डा मुरलीमनोहर जोशी जब अध्यक्ष बन गए थे तो वाजपेयी, आडवाणी को क्यों नहीं वैसे ही काट दिया जैसे आज अमित शाह ने सबको निपटा दिया है। हकीकत है कि लालकृष्ण आडवाणी सचमुच प्रधानमंत्री बन सकते थे लेकिन उनमें वह निर्ममता नहीं थी जो सत्ता की पहली जरूरत है या जिसकी बदौलत आज नरेंद्र मोदी और अमित शाह है।
सो अब वक्त निर्मम है, सत्ता निर्मम है और ये चाहे जो सोचे ये अनिवार्यतः अपने को मन ही मन कोसने को अभि
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