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August 26, 2020
हर सुब्ह मुझसे बिछड़ कर अपने घर जाती है रात,
सच कहूँ मेरे लिए तो मुझमें मर जाती है रात।
धूप से दिन भर झुलसता है मेरी छत का बदन,
चाँदनी बनकर मेरी छत पर उतर जाती है रात।
नर्गिसी कुछ फूल खिल जाते हैं मेरी साँस में,
बनके ख़ुशबू रूह में जैसे बिखर जाती है रात।
मेरी तन्हाई की चीख़ें दूर से आती हुई,
सुनके फिर आवाज़ मेरी कितना डर जाती है रात।
बेरुख़ी तक़दीर की लड़ती है अपने आप से,
दिन गुज़रता ही नहीं कैसे गुज़र जाती है रात।
दिन तो पूरा ही पसीने को बना देता है ख़ून,
क्या बताऊँ ज़ख्म मेरे कितने भर जाती है रात।
सोचता हूँ मुझसे मिलने रोज़ आती है मगर,
जब नहीं मिलता हूँ उसको तब किधर जाती है रात।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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