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September 9, 2017
बेशक वर्ष 1993 में हुए मुंबई बम विस्फोट कांड में कानून के हाथ धीरे-धीरे अपराधियों तक पहुंच रहे हैं, लेकिन यह सवाल हमारे सामने है कि 24 साल बाद न्यायिक प्रक्रिया का इस मुकाम तक पहुंचना कितने संतोष की बात हो सकता है? इस सामूहिक हत्याकांड के प्रमुख षड्यंत्रकारियों में से एक याकूब मेमन को सवा दो साल पहले फांसी दी गई थी। अब मुंबई के टाडा (आतंकवादी एवं विध्वंसकारी गतिविधि निरोधक कानून) कोर्ट ने दो और प्रमुख अपराधियों (ताहिर मर्चेंट और फिरोज खान) को सजा-ए-मौत सुनाई है। लेकिन मुंबई में अलग-अलग जगहों पर बम रखने की साजिश में दूसरे कई लोगों को शामिल करने और हमले के लिए सामान जुटाने वाला प्रमुख मुजरिम अबू सलेम कठोरतम सजा पाने से बच गया है। दरअसल, सलेम हमारी सुरक्षा एजेंसियों को चकमा देते हुए भागकर पुर्तगाल चला गया था। वहां से उसका प्रत्यर्पण उसकी जिंदगी की गारंटी बन गया। यूरोपीय मानवाधिकार संधि के तहत पुर्तगाल ने उसे भारत को सौंपने के पहले मृत्युदंड ना देने की शर्त लगा दी। भारत उस शर्त से बंधा हुआ है। लेकिन इस कांड में मृत्युदंड पाने वाले दूसरे अपराधी इसे जरूर एक विसंगित के रूप में देखेंगे। टाडा कोर्ट ने अबू सलेम और करीमुल्लाह शेख को उम्रकैद की सजा सुनाई है। एक अन्य मुजरिम रियाज सिद्दीकी को 10 साल कैद की सजा सुनाई गई है।
बहरहाल, यहां पर यह ध्यान में रखना होगा कि अभी फैसला टाडा कोर्ट, यानी इस मामले में सबसे निचली अदालत का आया है। अभी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाने के विकल्प इन अपराधियों के सामने खुले हुए हैं। यानी पूरा न्याय होने में अभी और वक्त लगेगा। वैसे इन सबको सजा मिल गई, तब भी मुंबई बम कांड में न्याय प्रक्रिया अधूरी ही रहेगी। इस कांड के सरगना तो दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेमन थे। टाइगर मेमन को भारतीय अदालत मृत्युदंड सुना चुकी है। लेकिन इन दोनों ने पाकिस्तान में पनाह ले रखी है।
क्या किसी कांड में सरगनाओं के सुरक्षित रहते कहा जा सकता है कि पूरा इंसाफ हो गया? दाऊद और टाइगर जैसे दुर्दांत अपराधियों को वापस ना ला पाना पिछली लगभग चौथाई सदी में भारतीय कूटनीति की शायद सबसे बड़ी विफलता है। हमारी सरकारें उन्हें सौंपने के लिए पाकिस्तान को राजी या मजबूर नहीं कर पाईं। इससे भारतवासियों में अक्सर लाचारी और आक्रोश की भावना पैदा होती रही है। मुंबई धमाकों में 257 लोग मारे गए थे। सात सौ से ज्यादा लोग जख्मी हुए थे। बताया जाता है कि दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में मुंबई में हुए सांप्रदायिक दंगों का बदला लेने के लिए दाऊद, टाइगर मेमन और उसके दूसरे साथियों ने उस कांड को अंजाम दिया। खासकर भारत की आर्थिक शक्ति के प्रतीक ठिकानों को निशाना बनाया गया। उससे लगे सदमे की याद आज भी देशवासियों को परेशान करती है। उस मामले में पूरा और सख्त न्याय हो, यह उनकी अपेक्षा रही है। जबकि असल में सारी कार्यवाही बेहद धीमी गति से चली। और इतनी लंबी अवधि के बाद भी आधा-अधूरा इंसाफ ही हुआ है। इससे आखिर कैसे तसल्ली हो सकती है?
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