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October 23, 2017
जोंक हर लेती है इंसानों का मर्ज,
देती है सेहत का वरदान
- डॉ. दीपक आचार्य
पानी में पायी जाने वाली जोंक केवल मामूली जलचर ही नहीं बल्कि इंसानों के लिए आरोग्य देने वाली है। इसका प्रयोग त्वचा एवं रक्त संबंधित कई बीमारियों में किया जाता है।
पुराने जमाने में लोग इन जलचर जीवों के माध्यम से अपनी कई सारी बीमारियों का ईलाज किया करते थे। फोड़ा-फुँसी या रक्त विकार हो जाने अथवा चमड़ी से संबंधित बीमारियों के निवारण में जोंक किसी डॉक्टर से कम नहीं है।
इस बात को बीते युगों के लोग अच्छी तरह जानते थे। कालान्तर में ज्ञान और अनुसंधान के अभाव में इन परंपरागत और पुरातन महत्व की कई चिकित्सा पद्धतियों और ईलाज के मामूली किन्तु रामबाण नुस्खे हाशिये पर आते गए और धीरे-धीरे लुप्त हो गए।
अब इन्हीं पुरातन चिकित्सा पद्धतियों पर चिकित्सा जगत का ध्यान गया है तथा इन हानिरहित और कारगर प्रयोगों पर नए सिरे से अनुसंधान किया जा रहा है।
प्राचीन भारतीय चिकित्सा संसार से विलुप्त हो चुकी अपनी तरह की कई चिकित्सा पद्धतियाँ ऎसी हैं जिनकी ओर न केवल भारतीयों बल्कि विदेशी चिकित्सकों में भी जिज्ञासा, उत्सुकता और आकर्षण बना हुआ है।
इन्हीं में एक है जलौका चिकित्सा। इसे अब अपनाया जाने लगा है। इस पद्धति में जलौका अर्थात जोंक से चिकित्सा की जाती है।
जगने लगा है आकर्षण
जलौका चिकित्सा को लेकर सभी जगह आकर्षण बढ़ रहा है। राजस्थान में इस चिकित्सा को प्रोत्साहित कर रहे जलौका चिकित्सा विशेषज्ञ, जहाजपुर (भीलवाड़ा) के आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी डॉ. युगलकिशोर चतुर्वेदी बताते हैं कि रक्तमोक्षण विधियों का प्रयोग कर शरीर से दूषित रक्त निकाल कर रोगियों को बीमारियों से मुक्ति दिलायी जाती है।
शुरू-शुरू में लोग इस पद्धति से चिकित्सा कराने में थोड़ा-बहुत हिचक दिखाते हैं किन्तु समझाने और उपचार ले लेने के उपरान्त अच्छा अनुभव व आरोग्य महसूस करते हैं। डॉ. चतुर्वेदी अकेले इन पद्धतियों के जरिये पिछले वर्षों में 15 से 20 हजार से अधिक लोगों का सफल उपचार कर चुके हैं।
दर्दमुक्त और सुकूनदायी है यह
बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के लिए यह कारगर है वहीं दर्दमुक्त है इसलिए लोग इसे पसंद करते हैं। जलौका चर्मरोगों के निवारण की दिशा में रामबाण है।
जोंक जहरीली और विषहीन दोनों प्रकार की होती है किन्तु रक्तमोक्षण चिकित्सा में विषहीन जोंक ही काम में ली जाती है। जोंक आमतौर पर कमल की खेती वाले जलाशयों में होती है और चिकित्सा में प्रयुक्त होने वाली जोंक 3 से 7 सेमी लम्बाई की होती हैं।
ये जौंकें स्थानीय स्तर पर भी तालाबों में मिल जाया करती हैं लेकिन जलौका विशेषज्ञ इन्हें अम्बाला, आगरा, अहमदाबाद सहित देश केे अन्य स्थानों से मंगवाते हैं। इनके रोम और धारियों को देखकर जानकार लोग इनकी उपयोगिता का पता कर लेते हैं।
ऎसे चूस लेती है दूषित खून
जलौका चिकित्सा में चर्मरोग से प्रभावित बिन्दुओं पर जोंक चिपका दी जाती है जो कि दूषित रक्त चूस लेती है। विषहीन जोंकों का उपयोग किया जाता है और एक मरीज पर एक बार में ही पन्द्रह मिनट से लेकर 3 घण्टे तक अवधि में ये प्रयुक्त होती हैं। इसके बाद उन्हें जलाशय में छोड़ दिया जाता है।
एक जोंक एक बार में 2 से 5 मिलीलीटर दूषित खून चूस लेती है। रक्त शुद्ध हो जाने के बाद ये खून चूसना बंद कर देती हैं। तब हल्दी और अजवाईन का चूर्ण डालकर इसे हटा लिया जाता है। जलौका के मुँह में हल्दी या अजवाईन का बुरादा डालकर इसे वमन करवाया जाता है।
जोंकों के पालनहार डॉक्टर
उन्होंने 100 जोंकें अपने जहाजपुर स्थित औषधालय में पाल रखी हैं जबकि अपने देवली स्थित आवास में 500 जोंक पाली हुई हैं जिनके लिए सात दिन में मिट्टी और 24 घण्टे में पानी बदलते रहना पड़ता है। जलीय वनस्पति पर जिन्दा रहने वाली जोंक के पोषण लिए कृत्रिम रूप से सिंघाड़े का आटा उपयोग में लाया जाता है।
आत्मप्रेरणा से अपनाया इसे
डॉ. युगलकिशोर चतुर्वेदी बताते हैं कि उन्होंने इस चिकित्सा पद्धति को आत्मप्रेरणा से अपनाया। वे कहते हैं कि पुरातन भारतीय चिकित्सा पद्धतियों को पुनर्जीवित किया जाए तो लोक स्वास्थ्य रक्षा के लक्ष्यों को और अधिक तेजी से पाया जा सकता है।
जलौका सहित कई प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों का वजूद फिर से स्थापित करने खास प्रयासों को अपनाने की जरूरत है। इसके लिए निरन्तर शोध अध्ययन एवं अनुसंधान की आवश्यकता है।
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